शास्त्रों से विदित होता हैं कि प्रारंभ में मानव का ब्रह्म (ईश्वर) से उत्त्पन्न होने के कारण सभी मानव को ब्राह्मण ही कहा जाता था | मनु और सोम के पुत्र-पौत्र क्षत्रिय कहलाये और इन्हीं दोनों के वंशज बाद में सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रियो के नाम से विख्यात हुए | और ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र वर्ण व्यवस्था के बाद अपने अपने वर्ण से अपने पूर्वजों (आराध्य देव) के नाम पहचान बनाते हुए अपने अपने वंश के अनुसार परिहार, राठौड़, पंवार (परमार), चौहान और गहलोत, सोलंकी शाखाओं का उदगम हुआ | शास्त्रों के अनुसार मानव वंश वृति के लिए विवाह कार्य सह गौत्र में करना निषेध माना गया और समाधान के रूप में शास्त्रों के अनुसार अपनी शाखा से उपशाखा (गौत्र) में परिवर्तित होने के सात पीढ़ियों बाद उक्त शाखा में विवाह किया जा सकता हैं | शास्त्र धर्म की पालना करते हुए वंश वृद्धि के लिए पूर्वजों द्वारा मुख्य शाखाओं में लगभग हजार, ग्यारह सौ वर्षों पहले से उपशाखा, खांप गौत्र (नक) का उदभव होना जान पड़ता हैं |
हमारे समाज की प्राचीन सूर्यवंशी मुख्य शाखाएँ व उपशाखाएँ जिनका नाम यहाँ दर्शाया गया हैं | राव बंशीलाल (भाट) द्वारा खारड़िया सीरवी बही, खाता एवं खारड़िया सीरवी इतिहास से प्राप्त हुई जानकारी के अनुसार लिखा गया हैं | सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया में मुख्य शाखाओं के आराध्य कुलदेवी देवता, जो आदिकाल से समाज में पूजनीय हैं | समाज में (आदुजात) मुख्य चार शाखाएँ और समाज के राव एवं बान्ड़ेरुओं की गणना में छ: शाखाएँ मानी गई हैं | छ: शाखाओं के कुलदेवी, देवताओं का वर्णन कुछ इस तरह हैं :-
राठौड़, के कुल देवता सूर्यनारायण एवं कुलदेवी नागनैची माता गाँव नागाणा
परिहार, के कुल देवता विष्णु एवं कुलदेवी गाजण माता (गाजमाता) मंडोर जोधपुर
सोलंकी, के कुल देवता विष्णु एवं कुलदेवी हिंगलाज माता पाटन
गहलोत, के कुल देवता महादेव एवं कुलदेवी श्री बाण माता चित्तौड़
चौहान, के कुल देवता महादेव एवं कुल देवी आशापुरी माता गाँव नाडोल
परमार, के कुल देवता महादेव एवं कुल देवी दुर्गा माता (अधर देवी, आबू पर्वत, राजस्थान)
पंवार, के कुल देवता महादेव एवं कुल देवी संचियाय माता गाँव ओसिया, जालोर, राजस्थान
ज्ञात होता हैं और मुख्य शाखाओं में से नक सहित ४९ गौत्रों (उपशाखाओं) का उदभव होना जान पड़ता हैं | जो आज समाज में वर्तमान हैं |
सूर्यवंशी एवं सूर्य का प्रतिक अग्नि वंशीय सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया की मुख्य शाखाओं (गौत्र, नक) का उदभव समाज के राव-भाटों, बुजुर्गों एवं कुछ इतिहास की पुस्तकों में से जानकारी प्राप्त करके संक्षेप में लिखा गया हैं |
सीरवी परिहार शाखा का उदभव –
परिहार – इस वंश को पनिहार, पडियार, परिहार, प्रतिहार या गुर्जर प्रतिहार (गुजरात प्रदेश पर शासन करने के कारण) वंश भी कहा जाता हैं | चन्द्रवरदायी आदि कवियों ने इन्हें अग्नि वंशी माना हैं | कर्नल टाड, मि. जेक्सन आदि कई इतिहासकारों ने इस कपोल कल्पना को मान्यता देकर इस वंश को विदेशियों से उत्पन्न होकर गुर्जर (गुर्जस्त्र) वंश माना हैं | इन कपोल कल्पनाओं का कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं हैं | पहले इस वंश को राम के पुत्र लव की संतान मानते थे, किन्तु नई शोधो से पता चला हैं कि यह वंश राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण का वंश हैं, वनवास कल में लक्ष्मण भगवान राम तथा सीता के प्रतिहार (द्वारपाल) के रूप में रहे थे | अत: इन्हें प्रतिहार की उपाधि से विभूषित किया गया था | यह मत जोधपुर महाराजा बाऊक केर नौवीं शताब्दी के शिलालेखों से भी प्रमाणित होता हैं | यह वंश विशुद्ध सूर्यवंशी हैं | राजपूत वंशावली पृष्ठ ८८
सीरवी लचेटा गौत्र का उदभव –
लचेटा – “किवदंतियों के मतानुसार” विक्रमी संवत की ८ वीं शताब्दी में प्रतिहार (परिहार) हिन्दुजी (सिन्धुजी) ने एक ढाणी बसाई जिसे आज लेता गाँव (पुराना) के नाम से जाना जाता हैं | हिन्दुजी (सिन्धुजी) ने यह ढाणी जाबालिपुर (जालोर) से कई दशकों पहले बसाई थी इसलिए यह माना जाता हैं कि भीनमाल(श्रीमाल) क्षेत्र प्रतिहारों के अधीन होने में हिन्दुजी की मुख्य भूमिका रही थी | जालोर गढ़ में जौहर पृष्ठ स. १८ – प्राचीन नगरों में भीनमाल (श्रीमाल शहर) का नाम आता हैं, जो जालोर का ही भाग तथा उपखंड हैं | मौर्यों के बाद इस क्षेत्र पर क्षत्रिय राज्य करने लगे | भीनमाल से क्षत्रियों के सिक्के मिले हैं | भीनमाल (श्रीमाल) के पतन के बाद पर्वतीय सुरक्षा की दृष्टी से जाबालि आश्रम के पास स्वर्नगिरी की गोद में गुर्जर प्रतिहारों (गुजरात में शासन करने के कारण गुर्जर नाम) ने अपनी राजधानी यहां बनाकर इस क्षेत्र का नाम जाबालिपुर (जालोर) रखा | भीनमाल यह क्षेत्र बाद में गुजरात के चावडों ने जीत लिया | महाकवि माघ जो भीनमाल (जालोर) के ही थे, उनके दादा सुप्रभदेव इन गुर्जर राजाओं के मंत्री थे | ई. सन ७४० विक्रमी सम्वत ७९७ में श्रीमाल क्षेत्र चावड़ो से प्रतिहारों के पास आ गया था | प्रतिहार नागभत्त ने विक्रमी संवत ८१७ के आस पास अपना बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया था | ये प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज रघुवंशी थे | इस प्रकार यही जालोर प्रतिहारों की कर्मभूमि रहा | इसी नागभत्त ने विदेशी हमलों से रक्षा के लिए सीमा पर प्रतिहारी (द्वारपाल) बनना स्वीकार किया था | इसलिए भी यह सीमा रक्षक वंश, प्रतिहार वंश कहलाया |
जालोर का साम्राज्य भारत की पश्चिमी सीमाओं का प्रहरी था | इसके वंशजों ने आगे चलकर अपनी राजधानी जालोर से हटाकर कनौज कर ली | राजा भोज के समय में भी जालोर राज्य उसके अधीन था तथा भीनमाल उसकी राजधानी थी | जालोर पर थोड़े समय के लिए मंडोर के प्रतिहारों का भी राज्य रहा हैं | ऐसा माना जाता हैं कि भीनमाल पर सिंध के गवर्नर जुनेद द्वारा किये गये हमले के बाद नित्य होने वाले हमलो से बचने के लिए जालोर की राजधानी स्वर्नगीरी पर बना दी गई | उसके बाद जालोर प्रगति की ओर बढ़ा तथा मुख्य व्यापारिक केंद्र बन गया था | यहां अठारह वर्ग के लोग रहते थे | अठारह देशों के लोग आकर के अठारह भाषा बोलते थे | जिसमे गोवा, मगध, लाट, मालवा, कर्नाटक, कोसल, महाराष्ट्र, आंध्र मारूगुर्जर के साथ तापिक, टके, कीर, अंतर्वेद आदि देश के व्यापारी होते थे |
हिन्दुजी पडियार नागभत्त के वंशजों में से थे | प्रतिहार (पड़ियार) नागभत्त के साथ प्रतिहार हिन्दुजी का क्या रिश्ता था ? यह ज्ञात नहीं हुआ | हिन्दुजी की यह ढाणी सुंदरा बाव (जालोर तालाब) के पूर्व दिशा में लगभग छ: किलोमीटर दुरी पर हैं | जिसके उत्तर में एक बड़ा वाला बहता था, जिसमे डोडयाली (डोडगढ) के आस पास का पानी आता था | जो उस वाला में होकर जालोर के सुंदरा बाव (सुन्दरला तालाब) में गिरता था | आज उस वाला ने “जवाई नदी” का रूप ले लिया हैं | उसके पास ही पानी की व्यवस्था को देखते हुए हिन्दुजी और उसका बेटा लेसटा ने अपना आशियाना बसाया | उसके समुदाय में आजणा जाति के एक रेबारियों का भी डेरा (घर) था | उसी भूमि पर उनका समुदाय पशुपालन और खेती बाड़ी कर अपना जीवन यापन करने लगा | इसी काल में हिन्दुजी के स्वर्ग सिधारने पर उनकी याद में लेसटा ने (हिन्दुजी) सिन्धु नाडी खुदवाई | जो आज लेटा का बड़ा तालाब कहलाता हैं | परिहार लेसटा ने अपनी माँ लक्मी की याद में भी एक नाडी खुदवाई, जो वह “नकमी” (लकमी) नाम से आज भी लेटा में मौजूद हैं |
लेटा के कवि बगसू व दौलतराम राव और गाँव के ही कुछ बुद्धिजीवियों से मिली जानकारी के अनुसार लेसटाजी धर्मात्मा, परोपकारी व भगवान शिव के सच्चे भक्त थे | लेसटाजी अपनी ढाणी से दूर बाग में शिव लिंग की स्थापना कर शिव-उपासना करते थे जहां पर नीम वगैरह के पेड़ लगाए थे, जिसे लेसटा बाग़ कहा जाता हैं | जो आज भी पुराना लेटा गाँव भगवान शिव मंदिर के परिसर में स्थित हैं | श्री लेसटा का देवलोक गमन विक्रमी सम्वत ०९६४ चैत्र सुदी १० था | इन्हीं महान पुरुष श्री लेसटा की स्मृति में पूर्वजों ने अपनी ढाणी का नाम लेसटा ढाणी रखा | जो बाद में ढाणी ने अपना नाम लेटा गाँव का रूप लिया | लेटा गांव वर्तमान में राजस्थान के जालोर जिले में स्थित हैं | जिसको आज प्रतिहारों (चौधरियों) का गांव कहते हैं | लेसटा के बाद उनके तीनों पुत्रों ने अपने अपने हिस्से की जमीन में “खाड़” (कुए) खुदवाये | जो आज भी नदी के पास लेटा गांव में स्थित हैं |
उसी समय शासक गुरोसा को लेसटा की ढाणी से आतमणि (पश्चिम) दिशा में जमीन भेंट की थी | जिसे गुरोसा का “ढिंमड़ा” कहते थे | आज भी यह जमीन इसी नाम से बोली जाती हैं | उनके परिवार का एक घर आज भी मौजूद हैं “पारसमलजी गुरोसा” उसी खानदान के लोग आज भी लेटा में निवास करते हैं | लेसटाजी के परिवार वालों ने किसी कारणवश यह ढाणी (लेटा गांव) छोड़ते वक्त आंजणा जाति की बहु को, जो अपनी धर्म बहन बनाई हुई थी उसको तीनो कुओं की जमीन, जो वर्तमान में पतालिया, गजावा, नौकड़ा के नाम से जानी जाती हैं | वह भेंट देकर विक्रमी सम्वत की दशवी शताब्दी के बाद लेटा गांव छोडकर अपनी प्रतिहार (परिहार) मुख्य शाखा से उप शाखा (गौत्र) की पहचान अपने पूर्वजों के नाम लेसटा (लचेटा) बनाते हुए वहां से उगमणी (पूर्व) दिशा में जाने के संकेत मिलते हैं | आगे भी बताते हैं कि लचेटा (लेसटा) परिवार किसी राजा के बुलावे पर गये थे | इसी तरह समाज के शेष मुख्य शाखाओं से उपशाखाओं का उद्भव भी अपने-अपने पूर्वजों एवं मुख्य स्थान के नाम से हुआ |
सीरवी मोगरेचा गौत्र का उदभव –
मोगरेचा – खारड़िया सीरवियों का इतिहास एवं समाज के राव-भाट इस गौत्र का निकास परिहार से बताते हैं | मोगरेचा बंधू भी स्वयं को परिहार से मानते हैं |
सीरवी सिन्दड़ा गौत्र का उदभव –
सिन्दड़ा – सिन्दड़ा गौत्र का उचित नाम इतिहास की पुस्तकों में अंकित न हो पाने के कारण इस गौत्र का उप गौत्र होना लगता हैं | समाज के राव-भाट के अनुसार इस गौत्र की मुख्य शाखा परिहार हैं |
सीरवी परिहारिया गौत्र का उदभव –
परिहारिया – रिपोर्ट-मरदुमशुमारी राजमारवाड़ १८९१ ई. पृष्ठ १६ पर राय बहादुर मुंशी हरदयाल सिंह लिखते हैं, यह पूर्व दिशा से आये हैं और कहते हैं कि भजन ऋषि का बेटा पड़ियारिया वनथल में हुआ | वनथल से राजा कपिल अयोध्या में आया, कपिल का बेटा पहलाद, पहलाद का बलम और बलम का अनुर हुआ, जिसके खानदान में से अनुराज अयोध्या छोडकर कश्मीर गया | उसकी औलाद में से राजा जगथम्ब भीनमाल में आया, उसका बेटा लकमीबर और लकमीबर का प्रयाग हुआ | उसने सुंधा पहाड़ के ऊपर लोहागल में जाकर अपना राज स्थान सम्वत १३८७ में वांधा, उसका बेटा चाऊदे हुआ, उसके चार बेटे हुए :-
१. देवल जिसकी औलाद में लोयाणे और ऊछमत के देवल हैं |
२. कुकड जिसके वंश वाले कुकड कहलाते हैं |
३. गुंदा जिसके खानदान में गुंद राजपूत हैं |
४. भीमा जिसके भार्डिया हुए |
इनका साम गौत्र हैं, सुंधा माता को पूजते हैं | यह अपने को रघुवंशी भी कहते हैं | समाज के राव-भाट अपनी बही से इस वंश का निकास पंवार से बताते हैं | परिहारिया बंधू स्वयं को रघुवंशी कहने से यह ज्ञात होता हैं कि यह वंश परिहार से हैं |
सीरवी लखावत गौत्र का उद्भव –
लखावत – राजपूत वंशावली पृष्ठ ६१ के अनुसार राठौड़ वंश के रणमलोत वंशजों से लखावत गौत्र का उद्गम होना जान पड़ता हैं | लखावत बंधु अपना निकास परिहार से मानते हैं |
सीरवी राठौड़ शाखा का उद्भव –
राठौड़ – राठौडो की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं | इनके भाट इन्हें हिरण्यकश्यप की रानी दिति से उत्पन्न मानते हैं | इनका कहना हैं कि राजा मुचकुंद का नाम राठौड़ था | जिसके वंशज राठौड़ कहलाये | कुछ विद्वान् इन्हें इंद्र की रहट (रीढ़) से उत्पन्न मानते हैं | कर्नल टाड इन्हें शक आदि अनार्यों की तथा वी. ए. स्मिथ, गौड़ आदि असभ्य जातियों से निकला मानते हैं | कुछ विद्वान् इन्हें दक्षिण के दविड़ों से निकला मानते हैं | जोधपुर राज्य की ख्यात में इन्हें राजा युवनाश्व के पुत्र बह्दबल की संतान कहा गया हैं तथा दयालदास ब्राहमण वंशीय भल्लराव की संतान मानता हैं | राठौड़ महाकाव्य में इन्हें शिव के चन्द्रमा से उत्त्पन्न बताया गया हैं | (राठौड़ महाकाव्य, सर्ग श्लोक १२-१९)
ऊपर लिखित सभी तथ्य बुद्धि की हवाई दौड़ हैं | तथ्य यह हैं कि यह वंश रघुवंशी भगवान राम के द्वितीय पुत्र कुश का वंश हैं | इस वंश का प्राचीन नाम राष्ट्रकूट हैं | राष्ट्रकूट से विकृत होकर राठौड़, राउटड, राठौढ या राठौर प्रसिद्द हुआ | यह वंश विशुद्ध सूर्यवंशी हैं | (राजपूत वंशावली पृष्ठ ५४)
सीरवी भुंभाडिया गौत्र का उदभव –
भुंभाडिया – समाज के राव-भाट अपनी बही से भूमदडा गौत्र को राठौड़ की खांप बताते हैं | भूंभाडिया बंधू अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से मानते हैं |
सीरवी बर्फा गौत्र का उदभव –
बर्फा – समाज के राव-भाट बर्फा गौत्र का उदगम राठौड़ से बताते हैं | सीरवी शिवसिंहजी चोयल के बताये अनुसार बर्फा बंधू भी अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से मानते हैं |
सीरवी उदावत गौत्र का उद्भव –
उदावत – राजपूत वंशावली पृष्ठ ६० के अनुसार राठौड़ वंश के राव कान्हदेव के पुत्र उदा के नाम से उदावत गौत्र का उद्भव हुआ | उदावत बंधु अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से मानते हैं |
सीरवी चांवडिया गौत्र का ऊद्भव –
चांवडिया – राजपूत वंशावली पृष्ठ ६२ के अनुसार राठौड़ वंशज में से चांवडिया गौत्र का उद्भव हुआ | चांवडिया बंधु स्वयं की गौत्र का निकास राठौड़ से होना मानते हैं |
सीरवी चांदावत गौत्र का उद्भव –
चांदावत – राठौड़ वंश के राजा चंद का सलुम्बर में राज था | राजा चंद के वंशज चांदावत कहलाये | राजपूत वंशावली पृष्ठ ६२ | चांदावत बंधु अपना निकास राठौड़ से मानते हैं |
सीरवी चौहान शाखा का उदभव –
चौहान – चन्द्रवरदाई, मुहणोत नैणसी तथा सूर्यमल मिश्रण ने इस वंश को अग्निवंश माना हैं | कर्नल टाड, वी. ए. स्मिथ ने अग्नि कुल से उत्पन्न सभी राजपूत वंशो को विदेशी बताया हैं | डा. देवदत रामकृष्ण भण्डारकर बीजोलिया केशिलालेख से पहले इसे ब्राह्मण वंशी मानता हैं, किन्तु कर्नल टाड को देखकर अपना मत बदलकर फिर विदेशी मानने लगता हैं | वास्तव में यह वंश विशुद्ध सूर्यवंशी हैं | चौहानों के द्वारा चलाये गये संस्कृत कंठाभरण विद्यापीठ अजमेर, जो बाद में मुसलमानों ने “अढाई दिन का झोंपड़ा” में परिवर्तित कर दिया था, के शिलालेख, सुंधा माता के शिलालेख, माउन्ट आबू के शिलालेख, बीजोलिया के शिलालेखों में चौहानों को वत्स गौत्रीय “सूर्यवंशी” होना लिखा हैं | महर्षि वत्स जो वैदिक युग में हुए, के वंशज चौहान हैं | महर्षि वत्स के वंश में चहंवाण, चाहमान, चायमान, चव्वहाण और धीरे धीरे चौहान कहलाये | (राजपूत वंशावली पृष्ठ १०५)
सीरवी मुलेवा गौत्र का उदभव –
मुलेवा – मुहणोत नेंणसी की ख्यात एवं राजपूत वंशावली और समाज के राव-भाटों के अनुसार इस गौत्र का उदगम चौहान से हैं | मुलेवा बन्धु स्वयं अपनी गौत्र का निकास चौहान से होना मानते हैं |
सीरवी चोयल गौत्र का उदभव –
चोयल – क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ २०४ पर चाहिल का वर्णन आता हैं कि चौहान वंश मुनि के वंशजों में कान्ह हुआ | कान्ह के पुत्र अजरा के वंशज चाहिल से चाहिलों की उत्पत्ति हुई | (क्यामखां रासा छंद संख्या १०८) रिणी (वर्तमान तारानगर) के आस-पास के क्षेत्रों में १२ वीं. १३ वीं. शताब्दी में चाहिल शासन करते थे और यह क्षेत्र चाहिलवाड़ा कहलाता था | आजकल प्रायत: चाहिल मुसलमान हैं | इसी तरह मुहणोत नैणसी भाग १ छोहिल के प्रति लिखते हैं कि सांखला (पंवार) बैरसी के राणा राजपाल हुए | राजपाल के तीन पुत्र थे | १. छोयल २. महिपाल ३. तेजपाल | छोयल के वंशज छोहिल कहलाये | छोहिल रुणेचा में रहे | समाज के राव-भाटों की बही के अनुसार चोयल को चौहान की गौत्र बताई गई और चोयल बंधू भी स्वयं को चौहान वंश से मानते हैं | रघुनाथ सिंह कलि पहाड़ी के अनुसार क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ २३४ पर पडिहारों (परिहारों) की खांपे और उनके ठिकाने की विगत में मेवाड़ के चोहिल और चोयल गौत्र परिहार की शाखाएँ हैं |
सीरवी सेपटा गौत्र का उदभव –
सेपटा – चौहान सरपट के वंशज सेपटा कहलाए | मुहणोत नैणसी की ख्यात भाग १ पृष्ठ ११७ एवं राजपूत वंशावली पृष्ठ ११० और समाज के राव-भाट भी अपनी बही के अनुसार सेपटा गौत्र को चौहान की शाखा बताते हैं |
सीरवी देवड़ा गौत्र का उदभव –
देवड़ा – चौहान राजवंशों की एक प्रसिद्ध खांप हैं | चौहानों के बारे में लिखे गए मुहणोत नैणसी के कथनों का सार यह निकला कि चौहान लाखण के वंशज आसराव की पत्नी देवी स्वरूपा थी | अत: उसके वंशज देवड़ा (देवड़) कहलाए | क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ २१५ | समाज के राव-भाट भी इसी मत के साथ देवड़ा का निकास चौहानों से बताते हैं |
सीरवी सियाल गौत्र का उदभव –
सियाल – समाज के राव-भाटों की बही के अनुसार सियाल गौत्र का उद्भव चौहान वंश से हुआ हैं | सियाल बंधू भी स्वय का देवड़ा (जो चौहान की उपशाखा हैं) निकास मानते हैं |
सीरवी सैणचा गौत्र का उद्भव –
सैणचा – पीपलाद विशेषांक(सीरवी सन्देश) में “सैणचा भगत समाज का इतिहास” भगारामजी सैणचा ने दोहा –
सरस्वती सिंवरु शारदा, बुद्धि दो उपजाय |
कंठो विराजो शारदा, सरस्वती देंवु मनाय ||
चव्हाण वंश इडर नगर, भोज नगर खट दिल्ली-खुमाण |
सब राजा के उपर घर, ………….. चकवे चौहाण ||
के रूप में सैणचा गौत्र का उद्भव चौहान से होने का परिचय देते हुए आगे सेणचा वंश राजा भोज के पुत्र खुमाणसिंह के पुत्र राजा भोज सेणक से चला व इनके वंशजो को ही सेणचा के नाम से जाना गया | इस तरह राजा भोज का जिक्र किया गया हैं, जो पंवार वंश से था | इतिहास के पन्नों में राजा भोज का चौहान वंश होना कहीं जान नहीं पड़ता | समाज के राव-भाट की बही से ज्ञात होता हैं कि सैणचा गौत्र का निकास चौहान से हुआ हैं |
सीरवी सोनगरा गौत्र का उद्भव –
सोनगरा – क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ २०६ – चौहान वंश के अल्हण के पुत्र कीर्तिपाल (कीतू) ने जाबालीपुर (जालोर) विजय किया | जाबालीपुर को स्वर्णगिरी भी कहा जाता था | इस स्वर्णगिरी (जालोर) के चौहान कीतू के वंशज सोनपरा, सातपुरा, सोनगरा (स्वर्णगिरी) कहलाये | मुहणोत नैणसी की ख्यात पृष्ठ १७२ चौहानों की २४ शाखाओं में एक शाखा सोनगरा, जालोर के स्वामी थे | समाज के राव-भाट अपनी बही के अनुसार सोनगरा गौत्र का उद्भव चौहान वंश से होना बताते हैं |
सीरवी आगलेचा गौत्र का उद्भव –
आगलेचा – मुहणोत नैणसी की ख्यात पृष्ठ १७२ जालोर के सोनगरा चौहान में विक्रमी संवत १३६८ वैशाख सुदी ५ बुधवार को जालोर का गढ़ टूटने पर वीरगति को प्राप्त हुए कान्हड़देव के सैनिकों की सूची में कान्हा ओलेचा लिखा गया | जो समय के साथ ओलेचा से आगलेचा होना जान पड़ता हैं | समाज के राव-भाट अपनी बही से आगलेचा गौत्र का निकास चौहान से बताते हैं |
सीरवी लालावत गौत्र का उद्भव –
लालावत – चौहानों की २४ शाखाओं में एक शाखा राव लाखण के वंशज हाडा बूंदी के स्वामियों की हैं | बूंदी के शासक नापा समरसिंहोत के पुत्र लालसी के वंशज लालावत हुए | लालावत के आगे चलकर दो शाखाएँ निकली, जैतावत व नवब्रहम लालसी के पुत्र थे | मुहणोत नैणसी भाग १ पृष्ठ ११७ एवं क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ २११ || लालावत बंधु अपनी गौत्र का उद्भव चौहान से मानते हैं |
सीरवी भाकराणी गौत्र का उद्भव –
भाकराणी – राजपूत वंशावली पृष्ठ ११७ के अनुसार चौहान वंशीय राजा मोहिल थे | शाखा में मोवनसिंह, माधोसिंह और मौवणजी हुए | माधोसिंह के वंश की उप शाखाओं में एक गौत्र भाकारणी (भाकराणी) बताया गया हैं | भाकराणी बंधु भी अपना निकास चौहान में से मानते हैं |
Part 2 : सीरवी खारड़िया : मुख्य शाखाएँ (गौत्र) एवं उपशाखाएँ (2)