सीरवी गहलोत शाखा का उद्भव –

    गहलोत – अबुल फजल, कर्नल टाड और डा. भण्डारकर के विचारों को कपोल कल्पना बताते हुए ठाकुर ईश्वर सिंह मडाढ लिखते हैं कि गहलोत विशुद्ध सूर्य वंशी क्षत्रिय हैं | इनके झंडे पर तथा प्राचीन सिक्कों पर सूर्य का चिन्ह होना, और उस पर (सूर्याय: नम:) लिखा होना इस मत को प्रमाणित करते हैं | यह वंश भगवान राम के पुत्र लव का वंश हैं | राजपूत वंशावली पृष्ठ ४७

    सीरवी खंडाला गौत्र का उद्भव –

    खंडाला – खारड़िया सीरवियों के इतिहास में गहलोत की खांप बताया गया हैं | समाज के राव-भाटों के अनुसार इस गौत्र का निकास गहलोत से हैं |

    सीरवी सोलंकी शाखा का उद्भव –

    सोलंकी – औझाजी, सोलंकियों का प्राचीन इतिहास, भाग १, पृष्ठ १ चालुक्य (सोलंकी) वंश की उत्पत्ति के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं | पृथ्वीराज रासों में इसे अग्नि से उत्पन्न माना गया हैं | कर्नल टाड, विलियम कुक इसे विदेशियों से उत्पन्न वंश मानते हैं | इसकी उत्त्पति के विषय में एक और मत प्रचलित हैं कि इस वंश का आदि पुरुष चुलुक “अंजली या चुल्लू” से उत्पन्न हुआ था | कवि विल्हण ने भी लिखा हैं की ब्रह्मा ने चुलुक से एक वीर उत्पन्न किया, जो चुलुक्य कहलाया | बडनगर प्रशस्ति में भी इसी प्रकार लिखा गया हैं कि राक्षसों से देवताओं की रक्षा करने के लिए ब्रह्मा ने अपने चुलुक में गंगाजल लेकर एक वीर उत्पन्न किया, जो चौलुक्य कहलाया | “बडनगर प्रशस्ति” श्लोक २-३ एक कथा यह भी प्रचलित हैं कि हारीत ऋषि द्वारा अर्ध्य अर्पण करते हुए उनके जलपात्र से इनके आदि पुरुष का जन्म हुआ, जो बाद चौलुक्य कहलाया | (राजपूत वंशावली पृष्ठ १८६) सी.वी. वैध अपने ग्रन्थ “हिन्दू भारत का उत्कर्ष” पृष्ठ २४१ में लिखते हैं कि सोलंकी नाम के राजपूतों के दो वंश हैं | उत्तर के सोलंकी और दक्षिण के सोलंकी अलग-अलग हैं | उत्तर के सोलंकियों का गौत्र भारद्वाज हैं | अत: वे भारद्वाज ऋषि की संतान मानते हैं | दक्षिण के चालुक्य राजपुताना के चालुक्यों से भिन्न हैं | दोनों क्षत्रिय हैं, परन्तु मराठा चालुक्य अपने को सूर्यवंशी कह्ते हैं और उनका गौत्र मानव्य हैं, पर राजपुताना के चालुक्य अपने को सूर्यवंशी कहते हैं और उनका गौत्र भारद्वाज हैं |(क्षत्रिय राजवंश रघुनाथ सिंह काली पहाड़ी पृष्ठ २४३)

    जाति भास्कर पृष्ठ, संख्या २३०/२३२ पर ग्रंथो के अनुवादक पण्डित ज्वाला प्रसादजी मिश्र द्वारा महाराष्ट्र क्षत्रिय जाति के ९६ कुल का वर्णन दर्शाया गया हैं, जो प्राकृत ग्रन्थ में भविष्योत्तर पुराण का प्रमाण बताया हैं | जिससे उपर्युक्त विद्वानों के मतभेद को दूर किया जा सकता हैं | सोलुंकी वंश सूर्यवंशी हंसध्वज राजा के वंशधारी का उपनाम सोलंकी हैं | उनका विश्वामित्र गौत्र, सिन्हलाजमाता कुलदेवता, अन्गोचरी मुद्रा, बीजमंत्र, लग्नकार्य में देवक कमल नालसहित अथवा सोलंकी के पिच्छ, तख्तगदी, दिल्ली, पीलीगदी, पीलीध्वजा, पीला घोड़ा, विजयदशमी के दिन खांडे का पूजन होता हैं | इनके पांच कुल हैं, सोलंकी, वाघमारे घाडवें घाघ, पाताडे अथवा पवोढे | राजपूत वंशावली पृष्ठ ४ पर ठाकुर ईश्वर सिंह मजाढ़ लिखते हैं कि चौहान महर्षि वत्स, चालुक्य (सोलंकी) महाराजा उदयन तथा प्रतिहार (परिहार) भगवान राम के लघुभ्राता लक्ष्मण की संतान हैं | परन्तु सभी सोलंकी बंधु अपने वंश की उत्त्पति अग्नि-वंश से मानते हैं |

    सीरवी परमार/पंवार शाखा का उद्भव –

    परमार/पंवार – उदयपुर प्रशस्ति (ई.पी.आई. एन.डी-१) में इसे सूर्य वंश से सम्बन्धित माना गया हैं, पाटनाराय शिलालेख (आई. एन. डी. ए. एन. बी. एक्स. एल. वाई.) में लिखा हैं – “वशिष्ट गौत्रोद्भवएवं लोके ख्यात रतदादो परमार वंश:” अग्नि वंश की भ्रान्ति उत्पन्न होने का कारण यह हैं कि इस वंश के महापुरुष का नाम धुमराज था | धम (धुआं) अग्नि से उत्पन्न होता हैं, इसीलिए इसे अग्नि वंशी कहा जाने लगा | जगदीश सिंह गहलोत, परमार वंश, पृष्ठ ४३ | “परान मारतीति परमार:” अर्थात शत्रुओं को मारने के कारण ही इन्हें परमार बाद में प्रमार, पंवार कहा जाने लगा | कवि चन्द्रवरदायी, सूर्यमल मिश्रण आदि कवियों ने इस वंश को अग्नि से उत्पन्न माना हैं | कर्नल टाड और डा. भण्डारकर ने इसे विदेशी जतियो से उत्पन्न माना हैं, जो की ठीक नहीं हैं | श्री हरनाम चौहान ने इसे मौर्य वंश की शाखा माना हैं, सभी परमार स्वयं को सूर्य वंशी क्षत्रिय मानते हैं |

    आगे इसी वंश में उपेन्द्र परमार हुए | जिसने मालवा में राज्य स्थापित किया | उसके बाद उसका पुत्र वैरी सिंह मालवा का राजा बना | उपेन्द्र के दुसरे पुत्र डम्बर सिंह ने डूंगरपुर व बांसवाडा में अपना राज्य स्थापित किया | मालवा की राजधानी पहले उजैन थी यहा का प्रसिद्ध गंधर्वसैन था | इसके तीन पुत्र थे – शंख, भृतहरि तथा विक्रमादित्य | शंख तो बचपन में ही मर गया था | भृतहरि कुछ दिन राज्य करने के बाद योगी बन गये | अत: पिता की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य मालवा के स्वामी बने | इसने अपनी वीरता से अरब तक का क्षेत्र जीतकर अपने राज्य में मिला लिया | काबा, जो मुसलमानों का पवित्र स्थान हैं, कहते हैं वहां शिव लिंग की स्थापना विक्रमादित्य ने ही की थी | इस्लाम के उदय होने से पूर्व काबा में ३६० मूर्तियाँ होने के शाक्त ग्रंथो में भी प्रमाण मिलते हैं | हजरत मोहम्मद ने इस्लाम धर्म में इन्हीं मूर्तियों की पूजा का खंडन किया था | हज के लिए जाने वाले आज भी काबे की सात बार परिक्रमा करते हैं और वहां केवल सफेद चादर में ही जाते हैं | यह हिन्दू पद्धति हैं | सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व उस समय सारा विश्व मानता था | काल की गणना विक्रमी संवत् से ही की जाती थी और हैं जो इसी की देन हैं | राजपूत वंशावली पृष्ठ ७१

    सीरवी हाम्बड़ गौत्र का उद्भव –

    हाम्बड़ – समाज के राव-भाट हाम्बड़ को गहलोत से निकली हुई गौत्र बताते हैं | ठाकुर बहादुर सिंह क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ ३२५ पर हुमड एवं मुहणोत नैणसी की ख्यात भाग १ पृष्ठ २६१ हाम्बड़ (हुमड) गौत्र को परमारों (पंवारो) की ३६ शाखाओं में से एक और राजपूत वंशावली पृष्ठ ७४ पर हुमड (हाम्बड़) गौत्र का उदगम पंवार में से होना लिखा गया हैं | हाम्बड़ बंधू भी अपने गौत्र का निकास पंवार से होना मानते हैं |

    सीरवी भायल गौत्र का उद्भव –

    भायल – पंवारों की शाखाओं में से एक शाखा सज्जन भायल हैं | मुहणोत नैणसी अपने ख्यात में लिखते हैं कि राजा उदयचन्द के वंशजों से परमारों की बहुत से खांपो का निकास हुआ | भायल खांप का निकास भी उदयचंद के वंशज पंवार से हुआ | भायलों का मुख्य गांव के नीचे गांव रोहिसी और सिवाना रहे | मुहणोत नैणसी ख्यात एवं क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ ३२३ समाज के राव-भाटों का भी यही मत है कि भायल गौत्र का उदय भी पंवार से ही हुआ हैं |

    सीरवी काग गौत्र का उद्भव –

    काग – मुहणोत नैणसी की ख्यात भाग ३ पृष्ठ १७६ के अनुसार काग (कागवा) परमारों (पंवार) की शाखा हैं | बत्तीस राजकुल में कागवा कुल का गढ़, कलहट गढ़ हैं | समाज के भाटों के अनुसार काग गौत्र का निकास पंवार में से ही हुआ |

    सीरवी गारिया (गाडरिया) भायल गौत्र का उद्भव –

    गारिया भायल – खारड़िया सीरवियों का इतिहास में चन्द्रसिंह जी इस गौत्र का निकास पंवार से बताते हैं |

    सीरवी सोमावत (सोभावत/सोभत्तरा) गौत्र का उद्भव –

    सोमावत/सोभत्तरा – क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ १८७ पर गुहिलोत वंश सोजावत सिसोदियों की उत्पति कहां से हुई, कुछ पता न चला | मेवाड़ में सिमरडा और भडार उनके ठिकाने थे | मारवाड़ रा परगना ऋ विगत तृतीय भाग में आये हुए चारण भाट व ब्राह्मणों के सांसण आदि की सारणी पृष्ठ ५४० पर सोमावत दर्शाया गया हैं | कुछ सीरवी बंधु स्वयं को सोमावत समझते हैं, वह अनुचित मालूम होता हैं | कुछ बंधु सोमत्तरा मानते हैं | जालोर का गढ़ टूटने पर वीर गति को प्राप्त हुए चौहान कान्हडदेव के सैनिकों की सूची में लक्ष्मण सोभावत नाम दर्शाया गया हैं | सो यह गौत्र सोमावत, सोमत्तरा न होकर सोभावत होना जान पड़ता हैं |

    सीरवी नारनवाल गौत्र का उद्भव –

    नांनणवाल – नांनणवाल बंधु अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से मानते हैं |

    सीरवी चौथजीवाला गौत्र का उद्भव –

    छौरजीहाल – छौरजीहाल बंधु अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से मानते हैं |

    सीरवी पोमावत गौत्र का उद्भव –

    पोमावत – पोमावत बंधु अपनी गौत्र का उद्भव राठौड़ से मानते हैं |

    सीरवी झांझावत गौत्र का उद्भव –

    झांझावात – झांझावात बन्धु अपनी गौत्र का उद्भव राठौड़ से मानते हैं |

    सीरवी भियांवत गौत्र का उद्भव –

    भियांवत – भियांवत बंधू अपनी गौत्र का निकास राठौड़ से होना मानते हैं |

    सीरवी अमरावत गौत्र का उद्भव –

    अमरावत – अमरावत बंधु अपनी गौत्र का उद्भव परिहार से मानते हैं |

    सीरवी मेहरावत गौत्र का उद्भव –

    मेहरावत – मेहरावत बंधू अपनी गौत्र का निकास परिहार से मानते हैं |

    सीरवी मालावत गौत्र का उद्भव –

    मालावत – गहलोत मालाजी के वंशज मालावत कहलाये राजपूत वंशावली पृष्ठ ५३ | मालावत बंधू अपनी गौत्र का उद्गम गहलोत से होना मानते हैं |

    सीरवी सांद्पुरा गौत्र का उद्भव –

    सांद्पुरा – समाज के राव-भाटों के बही के अनुसार इस गौत्र का उद्भव गहलोत से हैं |

    सीरवी परेरिया गौत्र का उद्भव –

    परेरिया – राजपूत वंशावली पृष्ठ ११७ पर चौहानों की शाखा में से एक पिपरिया गौत्र उदित होना लिखा गया हैं | समाज बंधू पपरेरिया, राव-भाट और समाज की लेखनी में इस गौत्र निकास की मुख्य शाखा की जानकारी नहीं मिली |

    सीरवी मादावत गौत्र का उद्भव –

    मादावत – मादोजी हाम्बड़ ने किसी रण-भूमि में दुश्मनों से झुन्झते हुए अपने प्राण त्यागे थे | इन्हीं महान पुरुष के वंशजों ने अपनी गौत्र (नक) की मादोजी से मादावत के नाम से पहचान बनाई | मादावत बंधू भी अपनी गौत्र का उद्भव हाम्बड़ से होना मानते हैं |

    सीरवी पितावत गौत्र का उद्भव –

    पितावत – पितोजी के वंशज पितावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव आगलेचा से हैं |

    सीरवी पुलावत गौत्र का उद्भव –

    पुलावत – पुलोजी के वंशज पुलावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव हाम्बड़ से हैं |

    सीरवी चिरावत गौत्र का उद्भव –

    चिरावत – चेराजी के वंशज चिरावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव चोयल से हैं |

    सीरवी दीपावत गौत्र का उद्भव –

    दीपावत – दीपाजी के वंशज दीपावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव राठौड़ से हैं |

    सीरवी खिंयावत गौत्र का उद्भव –

    खिंयावत – खिंयाजी के वंशज खिंयावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव परिहार से हैं |

    सीरवी मोटावत गौत्र का उद्भव –

    मोतावत – मोटाजी के वंशज मोटावत कहलाते हैं | इस गौत्र का उद्भव परिहार से मानते हैं |

    समाप्त |


    पुस्तक : सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरू वाणी
    लेखक एवं प्रकाशक : सीरवी जसाराम लचेटा (रामपुरा कलां), रामपुरम, चेन्नई, भारत (संपर्क : ९४४४७५९३०७)
    ऑनलाइन प्रकाशन : सीरवी दिनेश काग, बाली , राजस्थान , भारत (सम्पर्क : ९००१५६०२५६)
    अध्याय – २ : सीरवी खारड़िया : मुख्य शाखाएँ (गौत्र) एवं उपशाखाएँ


    नोट : उपरोक्त सुचना पुस्तक सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरू वाणी से ली गई हैं. अगर आप के पास कोई सुझाव या जानकारी हो तो हमे बेजिझक सम्पर्क कर सकते हैं.