सीरवी खारडि़या : आदर्श किसान एवं विकास यात्रा
सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारडि़या की वीरता का इतिहास देखने पर हमें यह शुकून होता है कि जब कभी अपने देष या प्रजा पर संकट आते देखा, तब तब अपना क्षत्रियता का दायित्व अपने अपने तन मन और धन से निभाया। समाज ने वि.सं. 1365 से कृषि व्यवसाय अपनाया। जब से समाज खेती के प्रति अपना परिश्रम, लगन के साथ पूर्ण रूप से समर्पित होकर आदर्ष किसान की भूमिका निभा रहा और समाज जमाने के अनुसार वर्षा और पैदावर के बारें में पूर्वानुमान में भी पारंगत रहा है। जैसे जमीन पर मौसम के अनुसार हळ चलाना, हवा के रुख को देखकर जुताई (कमाई) करना, जमीन (खेत) को विश्राम देना।
निर्धारित जमीन पर कितान गोबर (खात) डालना। गोबर नया, पुराना, किस जानवर का गोबर कितना कारगर होता है, मिट्टी काली, भूरी वगैरह होने पर मिट्टी के गुणों के अनुसार बीज की बुवाई करना। बीज बुवाई के वक्त मिट्टी में उचित नमी (पानी की मात्रा) का अनुमान लगाना। एक बीघा जमीन में किस किस्म का बीज, कितना गहरा, कितनी दूरी पर बुवाई करना। निर्धारित खेत में उचित मात्रा तक बीज की बुवाई करने की सटीक तथ्यपूर्ण अषिक्षित सीरवी किसान वर्ग में होना भी विलक्षण बात है।
समाज बांडेरु कृषि वयवसाय को पूर्ण श्रद्धा से अपनाते हुए मौसम की गतिविधियों और कृषि व्यवसाय पर प्रभावित होने वाले पवन व अन्य पेड़ पौधों के लक्षणों की जानकारी भी रखते है। जैसे आम का पेड़ अच्छा फलता है, तो अच्छी वर्षा की संभावना रहती है। केर अच्छा फूलता फलता है तो कपास की फसल अच्छी होती है। कपास की फसल अच्छी होती है तो उस वर्ष खरीफ की फसल कमजोर रहती है। खेजडी का पेड अच्छा फूलता (सांगरियां आना) फलता है तो बाजरे की फसल अच्छी होती है। झाळकी अच्छी पकने पर ज्वार अच्छी होती है। नीम का वृक्ष (जोरदार अच्छी खिचड व गून्टा लगना) अच्छी तरह फूलने फलने पर तिलहन की फसल अच्छी होती है।
समाज के बुजुर्ग चांद को देखकर पूर्वानुमान लगाते थे। जैसे चांद के चारों तरफ गोलाकार हल्का आसमान रंग का घेरा होने पर (अच्छे शगुन माने जाते) वर्षा होने की संभावना रहती है। ठीक इसी प्रकार शुक्रवार का बादल शनिवार का सूर्य देख लें तो वर्षा होने की पूर्ण संभावना रहती है। बांडेरु वाणी –
शुक्रवार की बादली, शनिचर तक रह जाय।
मेहर मानों इन्द्र की, बरसींया बगैर नहीं जाय।।
बुजुर्गों का कहना है कि उत्तर पूर्व दिषा की हवा वर्षा होने के संकेत देती है। मगर दक्षिण पूर्व दिषा की हवा चली तो मान लीजिए कि बरखा के बदरा का बिखेर देगी। श्रावण में ‘हुरिया’ हवा, जो उत्तर दिषा से चलने वाली अच्छी बारिष (वर्षा) लाती है। भादरवा में ‘परवाई’ (पुरवाई) हवा, जा पूर्व उत्तर कोण से चलती है, उससे अच्छी (वह बारिष लाती) वर्षा होती है। परवाई हवा के साथ वर्षा न होने पर वह जहरीली होती है। कच्ची फसलों, फूल-फल के लिए नुकसानदायक होती है। परवाई हवा चलने के साथ वर्षा होने पर उसका जहर मिट जाता है, फसलों के लिए अच्छी होती है।
सर्द ऋतु मं रबी की फसलों में गेहूं, जौ, सरसों, जीरा, रायडा, सोंफ, अजवायन, धनिया, अल्लसी, ईसबगोल, तारामीरा, सूर्यमुखी वगैरह बुवाई की जाती है। सर्द ऋतु में ज्यादातर पूर्व उत्तर की तरफ से हवा (परवाई) चलती है। बुजुर्गों का कहना है कि यह हवा खाली मानी जाती है। यह एक हाथ जमीन के अन्दर तक चलती है। इस हवा के चलने से फसलें कमजोर होती है। ज्यादातर रबि की फसलांे की सिंचाई होने पर इस हवा का प्रकोप कम हो जाता है। ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर जो पष्चिम से हवा चलती है, उस हवा से फसलों को अच्छी पौष्टिकता व अन्न के दानों को पकने में मदद मिलती है। सर्द ऋतु के प्रारम्भ काल में बुवाई की जाने वाली फसलों में, जिसकी सिंचाई नहीं के बराबर की जाती या नहीं की जाती जो हैवज होती है। जैसे चना, सरसों, रायडा, तारामीरा वगैरह।
इन फसलों की जडें गहराई तक जाती है। इसकी बुवाई के लिए खेत का बसन्त काल में घास फूस (खरपतवार) उगने के बाद जमीन की बार बार जुताई की जाती है। उस खेत में पानी की नमी को सुरक्षित रखने के लिए बारीकि से हळ जुताई की जाती है। बार बार जुताई करने से और पष्चिम की हवा चलने का लाभ दायक असर जमीन में घुल जाता है। जिसमें फसल का सिंचाई की जरुरत कम रहती है। सर्द ऋतु में एकाद मावट से भी फसल अच्छी पकने की आषा बन जाती है। ग्रीष्म काल में अधिकांष काष्तकार (किसान) अपने जमीन में हळ जुताई करके खेत को अगली फसल के तैयार करते है।
बसन्त काल में खरीफ की फसल के लिए भी पहले से ग्रीष्म काल में किसी न किसी प्रकार की कुछ विषेष तैयारियां कर ली जाती है। ग्रीष्म ऋतु में खेत में हळ अथवा आज समयानुसार ट्रेक्टर द्वारा तवियों की जुताई करने से पान पन्नडी वगैरह मिट्टी में दबने से खाद बन जाता है और विषेषकर हळ जुताई पर खेत की मिट्टी उलट-पलट होने से ग्रीष्म काल में सूर्य की तेज गर्मी से खेत को उर्जा (लू भर जाती) मिलती है। मौसम की अच्छी बारिष होने पर जमीन में फसलों की जरुरत के मुताबिक नमी होने पर ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग-मोठ, उदड-चैला, ग्वार, कुरा, करांगणी, मडुवा, तिलहन आदि अनेक फसलों की बुवाई होती है।
प्याज की खेती के लिए सर्द ऋतु के पिछले पहर (अंत) में प्याज के बीजों की बुवाई की जाती है। जिसे ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ काल में तीन चार पत्तियों के हो जाने पर उन्हें दूसरी जगह पर फिर से बुवाई के रूप में लगाया जाता है। इसी तरह मिर्च, मडुवा जैसी फसलों का ग्रीष्म काल के अन्तिम पहर में बीजों की बुवाई की जाती है। उन्हें बसन्त काल के पहले पहर में फिर से दूसरी जगह पर बुवाई के रूप में लगाया जाता है। तिलहन और बाजरे जैसी फसलों की कटाई करके उसी खेत में यदि रबि की फसल की बुवाई की चाहत होनें पर बुवाई की जा सकती है और वहां फसल अच्छी भी होती है।
तिलहन और बाजरे जैसी फसलों की जडें़ झकडा जड होती है। जिससे जमीन के अन्दर का पोषाहार (उर्जा) जमीन के उपर वालें भाग में आ जाता है। दूसरी फसलों की जडें मूसल जडें होती है। जो अपने आस-पास की मिट्टी से से तीन फुट तक का पूरा रसद चुस लेता है। जमीन (खेत) जुताई के बारें में कहा जाता है कि विषेषकर सर्दकाल में जमीन में जुताई नहीं की जाती, क्योंकि सर्द ऋतु में ज्यादातर पूर्व उत्तर के कोण की हवा चलती है और यह हवा पुरवाई कहीं जाती है। इस हवा के चलने का बुरा प्रभाव जमीन के अन्दर एक फुट तक होता है। यह पुरवाई हवा जमीन के अन्दर करीब एक फुट तक मिट्टी की उर्जा और नमी सुखा देती है। उस जगह फसल बुवाई करने पर गोबर खाद डालने, निराई, गुडाई करने पर भी वह फसल कमजोर होती है। इस प्रकार हमारा सीरवी समाज कृषि विषयक समग्र जानकारी रखने वाला समाज सर्व गुणों का भण्डार है, हम ईष्वर के आभारी है।
वि. संवत् 2004 भारत स्वतंत्र होने के पहले कुछ समाज भाईयों द्वारा जमीदारों से जमीन खरीदने या किसान के बल-बूते पर कुआं खोदने व बेरा स्थापित करने और वहां वर्षा से बंजर पडी भूमि को अपने हाथों से कुआं खोदकर पानी उपलब्ध कराना और हळ जोतकर जमीन को उपजाऊ रूप दिया था। उस जमीन का भी जागीरदार को बिगोडी के तौर पर भागे का छठा हिस्सा देना पडता था। भारत की स्वतंत्रता के बाद जिन भाईयों ने बेरे व खेती की जमीन खरीदकर अपने नाम करवाया, जिसकी बिगोडी भूमि कर के रूप में राजस्व आज भारत (हिन्दुस्तान) सरकार लेती है।
इस तरह अपने समाज का परिश्रम, लगन एवं ईमानदारी से खेती व्यवसाय के प्रति समर्पित हो जाने के कारण एक आदर्ष किसान, अन्नदाता के रूप में हमारे समाज की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। इस कारण सीरवी जिस गांव में खेती करने जाते, वहां के जागीरदार सीरवियों की बडी इज्जत एवं आदरपूर्वक पैदावार बढाने की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराते तथा विपत्ति में समाज की हर संभव सहायता भी करते थे। यदि कोई जागीरदार काष्तकार सीरवी के साथ धोखा अन्याय, शोषण या किसी प्रकार का दुव्र्यवहार करने पर वह किसान अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सीरवियांे की महा पंचायत में इकरार नामा करके उस गांव में सीरवियों द्वारा गद्दा रोपा जाता था, यानि उस गांव को ही छोडकर अन्यत्र प्रस्थान कर देते थे। फिर उस गांव में या उस जागीरदार के वहां कोई सीरवी, कृषि जोडी नहीं करता था।
विक्रम संवत 2025 के आस-पास तक किसानों का खेत सिंचाई का जरिया ढीमडा (अरहट) मण्डावाकर करीब 45 मीटर गहरे कुंए से बैलों द्वारा पानी पिलाई, सिंचाई की व्यवस्था की जाती रही। अरहट उस समय लकडी के बनाए जाते थे और कुएं में से पानी निकालने के लिए ‘माळ’ की आवष्यकता रहती है। माळ जो ऐरा, खींप या पौधों के तनों की बनी होती है। दो समानान्तर रस्सियों को लकडी की कीलों से जोडकर उन पर मिट्टी की घडलियां बांध दी जाती है। लकडी की एक मजबूत धुरी ‘उबडिया’ जमीन पर खडी की जाती है। उसके सहारे के लिए दो लम्बी लकडी की आडण, जिसे कौढ व पळिसना कहते है, उबडिया के उपर इस प्रकार रखा जाता है कि उबडिया अपने आप उस निष्चित स्थान पर गोल-गोल घूम सके, फिर उस बीम में जमीन के समानान्तर करीब मीन फुट की उंचाई पर एक चक्का (धाबडा) उबडिया में लगाया जाता है।
ठीक उसी नाप का दूसरा चक्का खडा (बांगडा) आडी लाठ में खडा किया जाता है। जो उबडियां वाले धाबडे के चलने पर वह खडे बांगडे से टकराकर पूर्व से पष्चिम उपर से नीसे की ओर चलता है। यह बांगडा जमीन के अन्दर लाठ के द्वारा दूसरे धाबडा से जुडी हुई होती है। दूसरे धाबडा पर, जो 16 पगयां 32 भोंक एवं 32 डिन्गारों से जुडा होता है, उपर माळ डाली जाती है। खडे उबडिया को चलाने के लिए समानान्तर चक्के बांगडे के एक छोर पर लम्बी लकडी की गादेळ में लकडी का गोडा से होते हुए रस्सी या लोहे की सांकळ में झंवाडा लगाकर बैलों की एक जोडी जोतकर उसको पूर्वख् उत्तर, पष्चिमख् दक्षिण गोलघाई घुमाया जाता था।
किसान (सीरवियांे) द्वारा बैलों का रख-रखाव पुत्र की तरह किया जाता था। बैलों के रहने, खाने, सोने व विश्राम के लिए अलग से मकान, जिसे ओडि कहते है, ओडि के अन्दर गोबर के चूरे का बिछावना करना व गीला होने पर उसे बार-बार धूप में सुखाना, मौसम के अनुसार उनके लिए व्यवस्था की जाती थी। उनक खाने के लिए ज्वार, बाजरा, मीठे मळिचेका चारा के अलावा गेहूं का खाखला, हरिये, मोंठों की पनडी, हरी घास, रिझगा, काष्मीरा, जौ, मेथी वगैरह के अलावा वर्षा के समय गुड फिटकरी का जावा (मिश्रण) सर्दी में अनाज बाजरा, जौ के दाणों का दलिया, तेल, गुड और तिल्ली का किचरीया (बाण्टा) व ऋतु के अनुसार खुराक दी जाती थी।
बैलों की सजावट के लिए सींगों को रंगीन द्रवो से रंगना, छडा लगाना, मुंह पर मुहरा, गले में टोकरिया जडित गलगोर पहनाई जाती थी। बैलों के खुरों की रक्षा के लिए जहां जिस गोलाई में बैल घूमते है, वहां गोबर की परत व कन्धों पर गीधि जमाई जाती है। उसके घूमने पर धाबडा व बांगडे तीनों घूमते रहते है। बांगडा चलने पर घडलियां उपर से नीचे करीब 45 फीट गहरें कुएं में पानी के अन्दर से चलती है। पानी में जाने के कारण वह पानी से भर जाती है और भरी हुई घडियां उपर आती है, जो पुनः नीचे जाते वक्त एक खेली ‘पाराषा’ में खाली हो जाती है।
इस प्रकार यह चक्कर यह चक्कर चलता रहता है। धाबडें पर एक लकडी का अंकुष पानडियां के साथ डूवा लगा होता है, जो सुरीली आवाज देता है और वह धाबडे को विपरित दिषा में घूमने से रोकता है। इसमें किसी को भी ताकत नहीं लगानी पडती और पानी का वेग बराबर चलता रहता है। जिससे सिंचाई सरल व अधिक होती है।
अरहट के उबडिये पर दो चरखियां लगी हुई होती है। जिनमें से एक पर डोरा (पतली रस्सी) लपेटा हुआ रहता है। अरहट चलने पर चरखियां घूमती है और चरखी से डोरा दूसरी चरखी पर लिपतटा जाता है। यह डोरा निष्चित नाप व निष्चित समय का होता है। जब पहली चरखी खाली हो जाती है तो सागडी एवं बैलों की जोडी बदल दी जाती है, ताकि निष्चित समय तक कार्य करने के पष्चात् वे आराम कर सकें। इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि किसानों ने अपने आराम के साथ-साथ पषुओं के आराम को भी ध्यान में रखा था।